बिहार चुनाव डायरी -2 : तमाम अनिश्चितताओं के बीच अप्रत्याशित नतीजे ही इसकी नियति है

बीते महीने बिहार चुनाव की तारीखों का एलान जब किया गया था, उस समय काफी सारी चीजें तय निश्चित दिख रही थीं. लेकिन चुनावी पारा चढ़ने के साथ- साथ इसे लेकर अनिश्चितता बढ़ती जा रही है. हालांकि, इन सब के बीच भी काफी कुछ चीजें तय दिख रही हैं.

साल 2020 की बात करें, इससे पहले हमें संक्षेप में पिछले बिहार विधानसभा चुनाव की पुनरावृत्ति करते हैं. नीतीश कुमार जब लालू प्रसाद यादव के साथ आए थे तो कई राजनीतिक समीकरण ध्वस्त हो गए थे. राज्य में कथित जंगलराज की बात कर सत्ता में आने वाले नीतीश कुमार राजद और कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार थे. वहीं, राज्य में जदयू की अनुचर रही भाजपा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को लीड कर रही थी.

एक ओर जहाँ नीतीश कुमार को अपने 'सुशासन' पर गुमान था. दूसरी ओर, भाजपा अपने शीर्ष नेता नरेंद्र मोदी के चेहरे को लेकर आगे बढ़ रही थी. नीतीश कुमार का साथ छूटने के बावजूद भाजपा को अपनी जीत का भरोसा था. इसकी वजह साल 2014 के लोकसभा चुनाव में एनडीए का प्रदर्शन रहा था. 16 वीं लोकसभा में भाजपा ने 40 में से 31 सीटों पर कब्जा किया था.

लेकिन, चुनावी अभियान में 'मोशा' (मोदी- शाह) के पसीना बहाने वाले अभियान के बावजूद एनडीए को करारी हार का सामना करना पड़ा. इससे पहले पटना और दिल्ली स्थित राजनीतिक पंडित भी राज्य में कांटे की चुनावी टक्कर होने का दावा कर रहे थे. लेकिन बिहार के वोटरों ने सभी को चौंकाने हुए अप्रत्याशित नतीजे दिए.

अब मौजूदा विधानसभा चुनाव की बात करते हैं. अब तक भाजपा के साथ आने के चलते जदयू भी मजबूत दिख रही थी और भाजपा भी. लेकिन चिराग पासवान ने आखिरी वक्त में नीतीश कुमार की उम्मीदों को कमजोर करने वाला कदम उठाया है. साथ ही, उनकी इस चाल ने चुनावी नतीजों को लेकर एक बार फिर राजनीतिक विश्लेषकों को असमंजस में डाल दिया है. अभी तक ये अनुमान लगा पाना मुश्किल है कि चिराग की ये चाल किस पर भारी पड़ेगी? एनडीए (नीतीश) को, महागठबंधन को या फिर खुद उनकी पार्टी - लोजपा को.

इस बात को हम छत्तीसगढ़ चुनाव-2018 के जरिए भी समझने की कोशिश कर सकते हैं. राज्य के पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री अजित जोगी ने बसपा के साथ गठबंधन कर कांग्रेस और भाजपा के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतारे थे. इस बारे में राजनीतिक पंडितों का ये कहना था कि इससे कांग्रेस को नुकसान होगा. लेकिन छत्तीसगढ़ के वोटरों ने अप्रत्याशित फैसला सुनाया. और 15 साल से सत्ता में रही भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा.

छत्तीसगढ़ की तरह बिहार में भी नीतीश कुमार डेढ़ दशक से सत्ता में हैं. लेकिन जिस तरह सत्ता विरोधी लहर छत्तीसगढ़ में थी. उस तरह का विरोध नीतीश कुमार का नहीं हो पा रहा है.

अपनी चुनावी रिपोर्टिंग के दौरान अब तक अधिकांश मतदाताओं का हमसे सवाल है कि अगर नीतीश नहीं तो फिर विकल्प कौन?

राज्य के वोटर महागठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तो हैं. लेकिन मतदाताओं के भीतर उनको लेकर विश्वास पैदा नहीं हो पा रहा है. इसकी वजह कई मामलों पर उनकी निष्क्रियता या राजनीतिक अपरिपक्वता रही है. जैसे, पिछले साल चमकी बुखार से जब सैकड़ों बच्चे जूझ रहे थे, उस वक्त तेजस्वी बिहार से गायब थे. कहाँ थे, इसका जवाब देने में पार्टी के नेता भी अपना मुंह छिपा रहे थे.

वहीं, तालाबंदी के चलते बिहार के मजदूरों को जितनी तकलीफें उठानी पड़ी, उसकी आवाज तेजस्वी आवाज बनते हुए नहीं दिखें. विवादित कृषि संबंधी विधेयकों (अब कानून) के खिलाफ वे पटना की सड़कों पर ट्रैक्टर चलाकर प्रदर्शन किया. लेकिन इसका असर राज्य के बाकी हिस्सों पर नहीं पड़ा.

उधर, लोकसभा चुनाव-2019 से लेकर अब विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के भीतर सीट बंटवारे को लेकर भी कई तरह के सवाल उठा रहे हैं. यहाँ तक की परिवार के भीतर की प्रतिद्वंदिता या मतभेदों को भी तेजस्वी सुलझा पाने में असमर्थ साबित हुए हैं. उनकी बहन मीसा भारती भी उतनी सक्रिय नहीं दिख रही हैं.

इन सारी बातों का असर जमीन पर लोगों के बीच दिखता है. 'माई' (एमवाई-मुस्लिम और यादव) का एक बड़ा हिस्सा अभी भी राजद-कांग्रेस के साथ है. लेकिन इनके लिए ये पसंद से अधिक मजबूरी का मामला बनता जा रहा है. कुछ सीटों (सीमांचल) पर एआईएमआईएम (असुद्दीन औवेसी) की अब इनका विकल्प बनती हुई दिख रही है.

वहीं, तमाम चुनावी विश्लेषणों के बाद भी बिहार पर अगले पाँच साल कौन राज करेगा? इस सवाल का जवाब आपको जमीन से ही मिल सकता है. हवा-हवाई बातों या दावों से नहीं.

एक महीने बाद जो चुनावी नतीजे आएंगे, उसका एक बड़ा आधार जाति-धर्म ही होगा. तमाम किंतु- परंतु के बावजूद चुनाव में विकास से जुड़े मुद्दों पर ये दोनों हावी होंगे. लेकिन एक बड़ा सवाल ये होगा कि मतदाता एक ही जाति या धर्म के दो या तीन उम्मीदवारों में से किसे चुनेंगे? और किस आधार पर चुनेंगे? ये सारी बातें ही बिहार का जनादेश तय करेंगी.

इन बातों के जवाब अभी नहीं मिल रहे हैं. वहीं, जिस तरह से राज्य में सियासी समीकरण बदल रहे हैं और पर्दे के पीछे पार्टियां सांप-सीढ़ी खेल रही हैं, उससे मतदाताओं के खेलने के लिए भी कई रास्ते बनते और बिगड़ते दिख रहे हैं.

लेकिन इन सब के बीच बिहार चुनावी लीग-2020 में तमाम नए खिलाड़ियों के बीच नीतीश कुमार ही 'धोनी' हैं और वे अन्य दलों के बाउंसरों और गुगली का किस तरह सामना करते हैं? चुनाव के नतीजे तय करने में इसकी भी बड़ी भूमिका होगी. साथ ही, ये नीतीश कुमार की आगे की सियासी पारी को भी तय करेंगे.

लेकिन, इन सारे किंतु-परंतु और अनिश्चितताओं के बीच ये तो पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि इस बार के चुनावी नतीजे जितने भी अनिश्चित हो, एक चीज निश्चित है. और वह ये है कि बिहार चुनाव-2020 के परिणाम अप्रत्याशित ही होंगे.

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Hemant K Pandey

Journalist & Writer of the people, by the people, for the people.