आने वाली पीढ़ियों को हम संसदीय लोकतंत्र के बारे क्या बता पाएंगे !

मौजूदा वक्त में ऐसी कई चीजें विवादों में हैं, जिन्हें विवादों में नहीं होना चाहिए. इनमें संसद का उच्च सदन- राज्यसभा है. इसके उपसभापति हैं. संसद में सरकार की कार्यप्रणाली है. वहीं, कुछ चीजें जो संसद में होनी चाहिए, वे नहीं हैं. विपक्ष नहीं है. विपक्ष की आवाजें नहीं हैं.

उधर, सड़कों पर तो पहले से ही सन्नाटा है. विपक्ष के जिन नेताओं को संसद से निकलकर सड़कों पर पहुंचना चाहिए, वे लुटियन्स दिल्ली में टी-पार्टी में व्यस्त हैं या ट्विटर पर. ये न तो संसद में हैं और न ही सड़कों पर. हम कह सकते हैं कि आजादी के सात दशक बाद किसी आंदोलन के लिए सड़क की जगह ट्विटर ने ले ली है. सरकार ट्वीट करती है...और विपक्ष भी. इसके चलते बुद्धिजीवी और अन्य को भी ट्विटर पर उतरना पड़ता है. सड़क पर तो आज भी मजदूर और किसान उतरते हैं, लेकिन उनकी आवाजें हवा या सरकार के कानों में कितनी गूंज हो पाती हैं!

अब सवाल उठता है कि ....तो फिर संसद में कौन है? इसका जवाब है.... वहां सरकार मौजूद है. इनके बहुमत से चुने हुए अध्यक्ष हैं....सभापति हैं....उपसभापति हैं. सरकार के पास विधेयक हैं. इसे पारित करने के लिए संख्याबल है. मंत्रीगण विधेयक पेश करते हैं. विपक्ष नहीं होने से न तो संशोधन पेश किया जाता है और न ही कोई सार्थक बहस होती है. संसदीय समितियां विधेयकों के इंतजार में मुंह ताकती रह जाती हैं.....और फिर विधेयकों को पारित कर लिया जाता है.

यानी अब संसद यानी विधायिका जो लोकतंत्र का एक खंभा है, उसमें सरकार को विपक्ष की कोई जरूरत नहीं दिख रही है. इसके बिना ही धड़ाधड़-धड़ाधड़ विधेयकों को पारित करवाया जा रहा है. इस पर राष्ट्रपति हस्ताक्षर कर देंगे तो ये कानून भी बन ही जाएंगे.  

बीते मंगलवार को भी ऐसा ही हुआ. राज्यसभा में विपक्ष की गैर-मौजूदगी में साढ़े तीन घंटे में सात विधेयकों को पारित किया गया. यानी आधे घंटे में एक विधेयक. भारतीय लोकतंत्र की स्पीड तो देखिए..इस स्पीड को रोकने के लिए कोई ब्रेकर नहीं है. न तो विपक्ष है...न संविधान है....और न ही आखिरी उम्मीद यानी जनता है. इसलिए जब इसके अगले दिन राज्यसभा की कार्यवाही बिना विपक्ष के ही शुरू हो जाती है. यानी संसद में केवल सरकार है. अगर संवैधानिक प्रावधानों की बात करें तो इसमें कुछ गलत नहीं है.

भारतीय संविधान में संसद की कार्यवाही शुरू करने के लिए एक कोरम तय किया गया है. इसके तहत सदन के कुल सदस्यों में से 10 फीसदी के रहने पर भी इसकी कार्यवाही शुरू की जा सकती है. यानी राज्यसभा में अगर 245 में से 25 सांसद भी मौजूद हैं तो इसे चलाया जा सकता है.

हालांकि, संविधान में ये नहीं लिखा है कि ये सांसद सत्ता पक्ष के होने चाहिए या विपक्ष के. वहीं, किसी विधेयक को पारित करवाने में भी संख्या को ही प्राथमिकता दी गई है. किसी विधेयक को पारित करने के लिए अलग-अलग पार्टी के सदस्य होने ही चाहिए, ऐसा नहीं है. शायद इसलिए भी लोकतंत्र बहुमत का शासन है. आम तौर पर अल्पमत इससे गायब ही रहता है.

यानी किसी सरकार के पास यदि संख्याबल है तो वह चाहे कैसे भी संसद को हांक सकती हैं. अब यहां पर सवाल उठता है कि राज्यसभा में तो सरकार के पास संख्याबल नहीं है, फिर राज्यसभा में कैसे सरकार का जोर चल रहा है? दरअसल, यहां संख्याबल के आगे की चीज ध्वनिबल है. पीठासीनों ने इसके आगे की संसदीय नियमों और प्रक्रियाओं पर तालाबंदी कर दी है. सब कुछ इसके अंदर बंद है. इसके बाहर कुछ है तो केवल सरकार की सीनाजोरी, अनैतिकता और अलोकतांत्रिक व्यवहार. ये सभी अदृश्य चीजें हैं. दृश्य केवल संख्या है.

कोरोना आपदा के सामने आने के साथ ही जिस तरह से सरकार ने इसे अवसर के रूप में लिया है, उससे कई सारी चीजें पहले से और कमजोर हुई हैं. इनमें अब संसद भी शामिल होती हुई दिख रही है.

पहले तो मानसून सत्र से प्रश्नकाल को ही खत्म करने की बात की गई. इस पर काफी आलोचना होने पर लिखित सवाल पूछने की मंजूरी दी गई. अगर आप लोकसभा और राज्यसभा की वेबसाइटों पर जाकर सरकार से पूछे जाने वाले सवालों के जवाब को देखें तो आप पाएंगे कि हमारी सरकार जिन लोगों के बारे में बातें करती है, उसके बार में डेटा नहीं रख रही है. न मजदूरों के .....न किसानों के.  

वहीं, किसी लोकतंत्र में सरकार से सवाल पूछना कितना जरूरी है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि अगर इस सत्र में सवाल न पूछा जाता तो हमें ये पता ही न चलता कि सरकार को ये भी नहीं मालूम है कि लॉकडाउन के दौरान कितने प्रवासियों की मौत घर लौटने के दौरान हुई है? दरअसल, जिन चीजों की हमें खबर है, उनसे हमारी सरकार ही बेखबर है.

वहीं, कुछ चीजों से हम भी लगातार बेखबर होते जा रहे हैं. जैसे; जिस तरह से देश को चलाया जा रहा है, उस हिसाब से आने वाली पीढ़ियों को हम अपने लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली के बारे में क्या बताएंगे? क्या हम उनसे कह पाएंगे कि एक मजबूत लोकतंत्र के लिए विपक्ष भी जरूरी होता है... संसद में असहमति की आवाज को भी जगह दी जाती है.... विधेयकों को पारित करने में बहस, संशोधन और संसदीय समितियों की भी कोई भूमिका होती है.... कार्यपालिका और विधायिका लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली के अलग-अलग हिस्से हैं....बहुमत मतलब लोकतंत्र नहीं होता है. ...और भी बहुत कुछ जिन्हें हम शायद ही अगली पीढ़ियों को बता पाएंगे !

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Hemant K Pandey

Journalist & Writer of the people, by the people, for the people.